मैं!
मैं नवी मुंबई में था, जब ये शुरू हुआ। आदतन जैसे हम भारतीय लोग रियेक्ट करते हैं, वैसे ही मैं भी रियेक्ट कर रहा था। मेरे सभी दोस्त भी इस को मज़ाक में ले रहे थे। हम सभी तो यही सोच रहे थे की ये एक चायनीस बिमारी है और चाइना की चीज़ चलती ही कितना है, थोड़े ही दिन में खत्म हो जाएगी।
येही कोई जनवरी का महीने था और साल दो हज़ार बीस अभी लगा ही था की कोरोना नामक संक्रमण फ़ैल रहा है ऐसी खबरें सोशल मीडिया पर जोर पकड़ रही थी।
मैं एक एडवरटाइजिंग कंपनी के लिए, लोगों से मिलने-जुलने का काम करता था। अभी सीख ही रहा था। कुछ क्लाइंट्स को मिलना शुरू किया था और कुछ पर बात आगे बढ़ रही थी। यही कोई रोज़ाना चार घंटे का काम होता था वो भी वीक में कुछ मीटिंग्स शनिवार को भी होती थी।
इसके साथ में फ्रीलांसर राइटर के रूप में भी कुछ काम कर लिया करता था। इस तरह से समय निकल जाता था। जनवरी निकल गया और कुछ डीलस पर क्रिएटिव हेड की मीटिंग करवा दी। क्लाइंट पार्टीस का काफी अच्छा रिस्पांस था। इस दौरान मैं खुश भी था। क्योकि मेरा समय अच्छा निकल रहा था और कुछ नए और अच्छे लोगों से मिलना हो रहा था। मुझे जो करना था मैं वो कर रहा था इससे अच्छी बात और क्या हो सकती थी।
फरवरी में कोरोना-19 के नाम से उस चायनीस बीमार का नाम सबको पता चल गया। मैं जहाँ कहीं भी जाता था कुछ लोग इसके बारे में बातें करते थे। क्योकि चीन में हज़ारों लोग रोज़ाना मरने लगे थे। वहां के लोगों में डर का माहौल था। कुछ दिनों के बाद पता चला की चीन की गवर्मेंट ने वूहान, जहाँ से ये बीमारी का संक्रमण शुरू हुआ था उसको पूरी तरह से बंद कर दिया। सभी नागरिको को जबरन घरों में बंद कर दिया गया।
कुछ वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होते थे। मैं और मेरे दोस्त उन वीडियोस को देखते थे। हमको जब ये पता चल की ये बीमारी किसी चमगादड़ के सूप के पिने के बाद फैली है तो मुझे और मेरे दोस्तों को चायनीस लोगों पर बहुत गुस्सा आया। ये सोच कर की ये उनकी ही गलती है जिसका हर्जाना वो भुगत रहे हैं। अच्छा हुआ।
थोड़े ही दिनों में ये खबरें चलने लगी की अब ये संक्रमण चीन से निकल के दुनिया के दूसरे देशों में फैलने लगा है। शुरुवात के खबरों से ऐसा लग रहा था की दुनिया के दूसरे मुल्क इस बीमारी को हलके में ले रहे थे। लेकिन इंडिया में गवर्मेंट ने बहुत सख्ती से कदम उठाने शुरू कर दिए थे।
जैसे की विदेशो से आने वालों लोगों की जांच।
दूसरे देशो से अपने मुल्क के लोगों को निकल कर लेके आना। सुरक्षित एवं निशुल्क पूर्ण जिम्मेदारी के साथ। सभी की जांच करना और उनको रहने खाने की चीज़े मुहैया करवाना।
एयरपोर्ट अथॉरिटी विदेशों से आने वाले लोगों की स्क्रीनिंग कर रही थी। इस स्क्रीनिंग में जिसका टेम्प्रेचर ज़्यादा होता है उसको वहां पर मौजूदा स्टाफ 14 दिन तक घर में रहने की सलाह देता है।
30 जनवरी को इंडिया के केरला में पहला केस आया जो वूहान से लौटा था। एक स्टूडेंट जो वूहान में स्टडी कर रहा था।
वूहान से इंडिया के सैकड़ों स्टूडेंट निकाले गए। इसके बाद ये बीमारी ने अपना उग्र रूप धारण कर लिया। फरवरी के अंत तक ये लगभग पूरी दुनिया में फ़ैल चुकी थी। पर मामले बहुत काम थे। दुनिया को एहसास हो चूका था। क्योकि जो लोग इस बीमारी से संकर्मित थे ,उनकी दसा जानवरों की तरह हो रही थी। मरने वाले का शव भी परिजनों को नहीं मिलता था। सामूहिक शव दहन का काम चीन में शुरू था। भारत में पहला केस फ़रवरी में केरला में आ चूका था। जिसका इलाज़ा चल रहा था।
इंडिया में फरवरी के अंत तक लोग मस्ती से काम पर जा रहे थे। मुंबई का माहौल भी बिलकुल नार्मल था। किसी चीज़ की कोई पाबन्दी नहीं थी। दूसरी तरफ लोगों में डर का माहौल भी था, क्योकि इस वायरस का कोई इलाज नहीं था और मौत निश्चित थी।
मार्च महीने इंडिया में केस की गिनती बढ़नी शुरू हो चुकी थी। मार्च महीने में ये गिनती बढ़ने लगी। सराकरें विदेशो से आने वाले लोगों पर पाबन्दी लगाने लगी। शुरुवात में लोगों को टेस्ट रिपोर्ट के आधार पर आने दिया जाता था। बाद में किसी भी विदेशी या भारतीय नागरिक का भारत में आना फुल्ली क्लोज्ड कर दिया गया। ये फैसला मुझे अच्छा लगा। इस से इंडिया में कोरोना को रोकने में काफी हद तक मदद मिलेगी।
10 मार्च तक महाराष्ट्रा में टोटल केस 11 हो गए। अब लोगो में एक ख़ास तरह का डर था। मैंने 13 मार्च को ट्रवेल किया नवी मुंबई से अँधेरी। मैंने लोकल ट्रेंस में पहले के मुकाबले 30 परसेंट भीड़ कम महसूस की। मैंने लोगों की आँखों में एक अलग सा डर देखा। जब कोई छींकता या खांसता था। लोकल ट्रेंस में बार-बार लोगों को गाइड किया जा रहा था। "छींकते-खांसते हुए रुमाल का प्रयोग करे। जितना हो सके उतना छूने से बाचे।"
मैं लगभग एक घंटा पैतालीस में अँधेरी पहुंच गया। मैं मिस्टर सिन्हा को कॉल लगाया। मैं उनको बताया की मैं अँधेरी पहुंच चूका हूँ। क्योकि हमारी मीटिंग पहले से फिक्स थी तो मैं घर से निकलें से पहले उनको कॉल नही किया था। मिस्टर सिन्हा में मुझे कॉल पर बताया की वो एक मीटिंग में है वो दो घंटे तक मिल सकतें हैं। मैंने उसको ओके बोला।
इसी बीच मैंने राज को फ़ोन कर लिया। उसने मुझे पांच बजे तक मिलने को बोला। फिर मैंने सोचा की अगर मैं उसको मिलने गया तो जल्दी से वापिस आना पड़ेगा इनको मिलने के लिए। फिर मैंने सोचा की पहले सिन्हा साहब को मिल लेता हूँ और राज को कॉल कर दिया है तोह उसको भी मिलना पड़ेगा।
सबसे पहले में एक रेस्टॉरेंट में गया। मैंने वहां पर हैंड वाश किया। क्योकि मेरे दिमाग में कोरोना ही घूम रहा था। उसके बाद मैं बगल वाले मैक्डोनल्स में गया। एक कॉम्बो पैक लिया। आराम से खाया। फिर भी कॉम्बो पैक साला दस मिनट में खतम हो गया। पन्द्र मिनट और बैठा फिर मैं बहार निकल आया। घूमता रहा इधर-उधर लोगों को देखता रहा।
मैं बिलकुल भी परेशान नहीं हुआ। मैं बस लोगों को एन्जॉय कर रहा था। मैं कभी बस स्टैंड पर बैठता तो कभी रेलवे स्टेशन पर। आखिर दो घंटा बीत गया।
मिस्टर सिन्हा आये उन्होंने मुझे तीन कॉल किया। लास्ट वाले कॉल पर मैंने अपने पॉकेट से मोबाइल निकला ताकि मैं टाइम से सकू में देखा की तीन मिस्ड कॉल और दो मैसेज। मैंने तुरंत बैक कॉल किया।
आखिर हम दस मिनट के लिए मिले अमूनन जैसे मिस्टर सिन्हा करते हैं उन्होने वैसा ही किया। उन्होंने सब कुछ बताया और देरी के लिए सॉरी भी मांगी। मैंने इटस ओके! कह दिया। उन्होने मुझे एक बहुत बड़े प्रोजेक्ट के बारे में बताया। ये सुन कर मुझे समझ नहीं आ रहा था की मैं क्या रियेक्ट करूँ। "एंड बता तुझे क्या पोजीशन लेना है?" ये लास्ट में बोले।
मैंने उसको समाइल के साथ बधाई दे दी और साथ में कहां की, "ये मेरे लिए किसी सपने से काम नहीं है।" मेरे पास कोई शब्द नहीं है की मैं क्या कहूं। उनको एक कॉल आया। उन्होने वो कॉल लिया और रात को पुणे में पहुंच कर काम करने को बोला। उस प्रोजेक्ट के बारे में बताया ये भी बहुत बड़े लेवल का प्रोजेक्ट था। पुरे महाराष्ट्र लेवल का और छे महीने में कम्पलीट करना था। कुल मिला कर हमारे पास बहुत सारा काम था।
सब कुछ ठीक रहा तो दोनों प्रोजेक्ट अप्रैल में शुरू हो जाएंगे। हमने लास्ट में कुछ दो मिनट की बात की और उनको देरी हो रही थी तो मैंने उनको ऑटो तक ड्राप कर दिया।
इस पन्द्रा मिनट की मीटिंग के बाद मैं बहुत खुश था। इसके बाद मैं राज से मिलने गया। उसके साथ चाय पी कुछ बातें की और निकल गया। वो भी कोरोना की बातें कर रहा था। उसकी बहुत साड़ी मीटिंग पेंडिंग हो गयी थी। वो हमेशा की तरह परेशान ही था।
मैंने छे चालीस की लोकल अँधेरी से पनवेल पकड़ी। थोड़ी देर में वाशी। उसके बाद बीस मिनट में घर पर पहुंच गया। खुश था। पर मुझे भी टेंशन होना लगा। क्योकि कोरोना के केस बढ़ रहें थे। अब तक इंडिया में 30 मरीज़ आ चुके थे।
मैंने अपने सभी दोस्तों में पहले से ज़्यादा डर देखा। एक क्योकि वो डेली लोकल से ट्रवेल करते थे। एक ने तो डेली एक पेग ड्रिंक करना शुरू कर दिया। अगले एक हफ्ते में मरीज़ों की संख्या डबल हो गयी। सरकार ने कड़े प्रतिबंद लगाने शुरू कर दिया। मुझे भी सीधा यमराज नज़र आ रहे थे। उसके बाद मैं कभी लोकल में ट्रवेल नहीं किया। मैं घर में ही बैठा रहता था। शाम को सभी लोग आकर कोरोना की ही बातें किया करते थे। मुझे भी डर लगने लग गया था। एक रात को मैंने देखा की कुछ ने तो गर्म पानी भी किया और उसने हल्दी डाली हुयी थी। हमने एक दूसरे का मज़ाक बनाया।
एयरपोर्ट्स पर सबको लॉक कर दिया गया था। हर एक आदमी बिना स्क्रीनिंग के नहीं जा सकता। मुझे इस समय ज़्यादा खतरा प्लेन में ही नज़र आ रहा था। क्योकि एयरपोर्ट्स पर ज़्यादा विदेशी लोगों का आना जाना लगा रहता है। आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकतें ही आपके आस पास कौन खड़ा है। कौन आपको कोरोना दे जायेगा ये भी ता नहीं चलेगा।
उधर में फेसबुक पर पोस्ट पढ़ा की सभी गार्डन, मॉल, पुब्लिच प्लेस महाराष्ट्र में बंद हो गए हैं। सभी प्रोडक्शन हाउस ने सरकार के साथ ही सब कुछ स्थगित कर दिया तीस मार्च तक। इस बीच मैंने सत्रह तारीख राहुल को कहा की, 'भाई कल की तत्काल बुक कर लुधियाना।' वो हैरान था की अशोक भाई और लुधियाना, अभी दो दिन पहले ही तो कह रहे थे की कभी नहीं जाऊंगा। मैंने उसको कहा की, दो दिन पहले और आज में बहुत फर्क है। बुक कर! बुक कर! जब सब कुछ शुरू होगा तब देखा जायेगा।
भागो! भागो! भागो!
पांच शर्ट, तीन पेंट, लैपटॉप, रविंदर सिंह की लव स्टोरीज की किताब। कुछ बिस्कुट्स, चिप्स के साथ बैग पैक। क्योकि सुबह छे बजे से पहले लोकल पकड़ कर बांद्रा जाना था।
मुझे रात को नींद नहीं आ रही थी ये सोच कर की ट्रैन में अगर किसी ने कोरोना दे दिया तो क्या होगा। वैसे मैं रात को दो बजे के बाद सोता था पर आज मैंने ग्यारह बजे सोना शुरू कर दिया और फाइनली दो बजे तक सो गया। पांच बजे उठा और देव स्नान किया। चूँकि सिद्देश ने बोला था की कल अशोक भाई देव स्नान करेंगे। सूरज निकलने से पहले। ऐसा ही हुआ।
राहुल मुझे स्टेशन तक छोड़ने साथ आया। क्योकि जब भी कोई जाता था तो मैं उनको छोड़ने जाता था। मैंने कभी किसी और तकलीफ नहीं दी। अक्सर जब मैं जाता था तो अकेले ही जाता था।
मैं दो साल से मुंबई में था पर मैंने अपनी ईगो में कभी मैं एम् इंडिकेटर नहीं डाउनलोड किया था। क्योकि मुझे मज़ा आता था लोगों को तंग करके ट्रेंस की इन्क्वायरी करना। राहुल ने कहा की टिकट विंडो बंद होगी। तो आप इंडिकेटर से डाउनलोड करलो।
मैं कोई एक एप डिलीट किया और एम-इंडिकेटर डाउनलोड किया। स्टेशन सात मिनट वाकिंग पर था। डाउनलोड करके। डिटेल्स भर कर जल्दी से चलते-चलते मैंने बांद्रा की लोकल टिकट निकली।
मैंने लोकल पकड़ी और बांद्रा पहुँचा। कुछ खाने के मैं पहले स्टेशन से बहार गया। इतनी सुबह कुछ नहीं मिला। कुछ था वो अच्छा नहीं था। "लेटस मूव फॉरवर्ड"।
बांद्रा से निकल के बांद्रा टर्मिनस की तरफ। ऑटो लिया। ऑटो में तीन लोग पहले से बैठे से मैं सामान रखा और हम निकल पड़े। तीन मिनट में बांद्रा टर्मिनस पहुंच गए। ऑटो वाले के पास पांच रूपये छुट्टे नहीं थे। मैं भी ढीठ था। क्योकि आधा किलोमीटर का वो पन्द्र रूपये ले रहा था। एक और लड़का पांच रूपये लेने को खड़ा था। पांच मिनट तक ऑटो वाला इधर-उधर भटका पर उसको कहीं चेंज नहीं मिला। फाइनली मैंने दस रूपये वापिस मांग लिए। वो भी चालक निकला बोला, 'भाई इसको पांच वापिस दे देना।'
मेरे मन में @####द, चल रहा था। मैं पांच रूपये का बोझ लिए आगे बढ़ा। वो बाँदा भी मेरे जैसे ढीठ था। उसकी उम्र भी कोई पचीस के आस पास रही होगी। दस कदम आगे बढ़े तो मुझे एक चाय की टापरी दिखी जो बांद्रा मैं एंट्री गेट के जस्ट बाजू में थी। मैंने उसको बोला की चल चाय पीते हैं। वो एग्री हो गया। उसने मुझे सिगरेट ऑफर की। मेरे मन में चल ही रहा था की 'लेले', पर उसको झटपट कहा की, 'मैंने छोड़ दी है।' वो बोला क्यों? बस ऐसे ही।
इतने में दो कटिंग आ गयी। मैंने एक कप उसको दिया, एक मैं पीने लगा। उसने पूछा की, जाना कहाँ हैं? मैंने झटपट कहा की, "दिल्ली।"
उसने तुरंत बोला, की दिल्ली में कहाँ? अब मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैंने उसको पूछ लिया, आपको कहाँ जाना है? वो बोला दिल्ली।
मैं: ओह अच्छा!
वो: दिल्ली में कहाँ?
मैं: एक्चुअली दिल्ली में मेरे दोस्त रहतें हैं।
वो: कहाँ?
मैं: पता नहीं।
वो: शांत। (उसको लगा की मैं झूठ बोल रहा हूँ, या में बताना नहीं चाहता हूँ)
(जैसा की अमूनन सफर में पहले मैं झूठ ही बोलता हूँ, बाद में जरुरत पड़े तो सच बोल देता हूँ।)
मैं: वैसे मुझे अम्बाला जाना है। वो बोला ओह अच्छा।
वो: अच्छा।
(अच्छा हुआ उसने ये नहीं पूछा की अम्बाला में कहाँ?)
इतने में मेरी चाय ख़त्म हो गयी। मैंने पैसे दिए। उसने मुझे बताया की, वो कल ही किसी काम से मुंबई आया था। पर मुंबई में आधी सर्विसेज लॉक डाउन है। जिसकी वजह से उसको वापिस दिल्ली जाना पड़ रहा है।
वो बोला की, 'ठीक है भाई टिकट लेता हूँ।' मैंने भी उसको इग्नोर किया। क्योकि मैं नहीं चाहता था की मुझे दिल्ली तक किसी से बेवजह बात करनी पड़े और अपनी आधी सीट भी शेयर करनी पड़े।
मैं स्टेशन में एंटर हुआ। सामान स्कैन किया। इंडिकेटर पर ट्रैन चेक कर रहा था। ट्रैन प्लेटफार्म नंबर 2 पर खाड़ी थी। इतने में पीछे से फिर वो आ गया। वो बोला की, 'पता नहीं सीट मिलेगी की नहीं?'
मैं: अरे सीट मिल जाएगी। टेंशन मत लो। अज कल गाडी खाली जा रही है। नहीं मिली तो एस नाइन में आ जान। मैं उधर ही हूँ। फोर्मल्टी पूरी करदी। बोझ उतर गया।
मैंने टीसी से पूछा की, एस नाइन किधर है?
टीसी: यही तो है, सामने वाले कोच को इशारा करते हुए बोला।
मैं: थैंक्स।
एंट्री गेट पर एक लड़की खाड़ी थी।
मैं: एक्सक्यूस मी। ये सुनते ही वो पलटी और मेरा लैपटॉप बाग़ गिर गया। लैपटॉप बैग गिरते ही मुझे गुस्सा आया।
सामने से वो मुझे सॉरी बोल रही थी। मैंने बहुत ही शांति से बैग उठाया। और उसको, "इट्स ओके" कह दिया। मैं ये सोच रहा था की उसने सॉरी क्यों बोला?
उसको देखते हुए मैं ट्रैन में चढ़ गया। दस कदम अंदर गया तो मुझे मेरी बर्थ दिखी। सीट नंबर 24, विंडो सीट। वैसे मैंने कभी विंडो सीट के लिए ज़िद नहीं की। पर मुझे अक्सर विंडो सीट मिल जाती है। सामान रखा और अगल-बगल का माहौल चेक किया। कुछ ख़ास नहीं था। 80 % बर्थ खाली पड़ी थी।
सामान रखने के बाद मैं बहार गया। मैंने एक बोतल रेल नीर लिया। दो चिप्स के पैकेट। दो बिस्कुट ले लिए। कुछ मुस्लिम ग्रुप के लोग मेरे पीछे वाले कोच में चढ़ रहे थे। उन्होने नार्मल ड्रेस नहीं पहना था। शेरवानी कुरता और पेजमा पहना था। अजीब था?
तकरीबन तीस मिनट बाद ट्रैन ने हॉर्न किया। सुबह के आठ बज रहे थे मैं ट्रैन में ही था। ट्रैन में अभी तक कुछ भी इंटरेस्टिंग नहीं था। मैंने ये सोच लिया था की मैं अपने टाइम पर नास्ता करूँगा। मैं आराम से बैठ गया।
पहला स्टेशन निकला। बोरीवली। दूसरा निकला, वापी। तीसरा निकल। फिर चौथा। चाय के साथ एक पैकेट बिस्किट। आराम से दो स्टोरी पढ़ी की सूरत आ गया। मैं घण्टों खिड़की से बहार देखता रहता। बिना किसी से बात किये। मैं बोलना ही नहीं चाहता था। मुझे बस अकेले में सोच - सोच कर मज़ा आ रहा था। इतनमे एक पैसठ साल का आदमी आया।
आदमी: मुझे दो स्टेशन आगे जाना है। मैं बैठ जाऊ?
मेरे सामने वाली सीट खाली थी। मैंने उनको कह दिया, बैठ जाओ। (ये कौनसा मेरे बाप की है, मन में)
वो बैठते की कोरोना की बात करने लगे। मैंने सिर्फ बात को आगे बढ़ने के लिए उनकी बातों को फिर, और, अच्छा। ठीक है। ओहो। का सहारा दिया। वो बोलते गए। ट्रैन गोधरा पहुंच गयी।
ट्रैन चलने ही वाली थी। अचानक से ट्रैन रुक गयी। दो कोच में लोग पागल हो रहे थे। कुछ समझ नहीं आ रहा था। अफरातफरी का माहौल था। "जो होगा वो तो होक ही रहेगा।" ये मेरी फिलोसॉफी थी। ये सोच कर मैं आराम से अपनी जगह पर बैठा था।
लेकिन जैसे ही मुझे पता चला की पिछले डिब्बे में छे लोग ऐसे बैठे थे जिनके हाथ पर "होम क्वारंटीन" का स्टाम्प लगा हुआ था। मेरी फिलॉसफी को दर्द महसूस होना शुरू हो गया। तकरीबन आधे घंटे बाद पता चला की, उन छे लोगों की इन्क्वारी हो गयी है। वो लोग दुबई से आये थे। एयरपोर्ट अथॉरिटी ने उनको ट्रवेल करने की इज़्ज़ज़त दी है। पर एक बार तो मेरे सामने बैठे पैसठ साल के बुड्ढे की साँसे रुक गयी थी जो मुझे इतने देर से ज्ञान दे रहा था। कोरोना पर।
इसके बाद मैंने सीधा अपर बर्थ का रुख किया। की अब यहाँ बैठना खतरे से खाली नहीं है। अब मेरी नज़र हर आने जाने वाले आदमी पर थी। कैटरिंग वाले से लेकर पानी वाले तक। मैंने सब कुछ नोटिस करना शुरू कर दिया। मैं अपर बर्थ पर था तो सब कुछ यहाँ से क्लियर नज़र आ रहा था।
कुछ ख़ास बातें जो मैंने नोटिस की वो इस तरह से हैं।
नंगे हाथ फल बेचने वाला वेंडर। चाय वाला। पानी वाला।
नंगे हाथ से दाल को मिलना, उसने प्याज लगाना, फिर उसी हाथ से निब्बु निचोड़ कर, चटपटा, करारा, नमकीन सिर्फ दस रूपये में दे देना।
उसी हाथ से पैसे लेना। जेब में डालना। फिर उन्ही हाथों से जगह - जगह पकड़ कर कोच में आगे बढ़ना। मैंने कुछ लोगों को टॉयलेट तक जाते देखा। अगले कोच में फिर से वही सिलसिला शुरू। हर वेंडर ऐसे ही कर रहा था।
मेरे दिमाग में यही आ रहा था की मैं कहाँ फस गया। अब बस जल्दी से घर पहुंच जाऊ। "जो होगा वो तो होक ही रहेगा।" ये मेरी फिलोसॉफी थी। अब मेरी पास बस फिलासफी का ही सहारा था।
मैंने प्राण कर लिया की ज़रूरत पढ़ने पर ही नीचे जाऊंगा। चार कप चाय और बिस्किट चिप्स खाकर जीवन की इस यात्रा को सफल बाउंगा। हार बार पेपर सॉप से हाथ वाश करूँगा।
पूरा दिन देखते ही देखते ख़त्म हो गया। रात हो गयी। लोग आराम से खा पी रहे थे। मैंने आज व्रत रख लिया था। एक दिन व्रत रखने से की मरता नहीं है। सर पानी बिस्कट और जरुरत पड़े तो चाय। खैर रात हो गयी थी।
मुझे पता था की जैसे ही रात होगी समझो मैंने आधा सफर पूरा कर लिया क्योकि सुबह चार बाजे मैं दिल्ली पहुंच जाऊंगा। और दस बजे तक लुधियाना। मतलब मुझे सुबह। नौ बजी तक उठान है। ताकि मैंने उस हिसाब से घर पहुंच सकूँ।
ठीक वैसे ही हुआ, रात को ठण्ड लग रही थी पर मैं, किसी तरह से एक शॉल में मैनेज कर रहा था। कभी आगे से ठण्ड लगती थी तो कभी पीछे से। खैर रात निकल गयी और सुबह के आठ बज गए थे। मैंने सोच किसी तरह नौ बजे तक सोना है।
खैर दस बजे, मैं पुरे वक़्त पर लुधियाना पहुंच गया। मेरी घर पर किसी को पता नहीं था की मैं आ रहा हूँ। तो मैंने अपने घर पर किसी को खबर नहीं की। मैंने सीधा घर पार पहुंचना चाहता था। मैंने ओला ली और निकल पड़ा।
20 मिनट में घर। घर वाले थोड़ा सरप्राइज थे, एक साल बाद मुँह दिखया जो था। मैंने सभी प्रोटोकॉल फॉलो किया। बिना कुछ छुए हुए। घर के अंदर गया। कपड़े खुद ही धो कर डाले। बैग को दो दिन तक धुप में रख दिया।
ख़ुशी तो थी घर आकर
पर गम भी उतना ही था।
कहीं मेरी वजह से किसी
दूसरी की बैंड न बज जाए
इसका डर सता रहा था
थोड़ा ही सही
पर साल बाद घर आकर
मज़ा आ रहा था।
तीसरे दिन मतलब रात को तीन बजे मुझे बहुत तेज़ बुखार, दस्त, उलटी शुरू हो गयी। समझ नहीं आ रहा था की हुआ क्या? अब तो सीधा यमराज नज़र आ रहे थे। शरीर में जान नहीं बची थी। ऐसा लग था की बाथरूम में ही बिस्तर लगा लू।
डॉक्टर के पास जाने पता चला की मुझे फ़ूड पोइशनिंग हो गया है। कुछ दिन मुझे दवा खानी पड़ेगी। उसने मुझे दो इंजेक्शन दिए। जिसकी वजह इ मुझे अगले दो घंटे में कुछ रहत महसूस हुई।
फीवर तो उतर गया पर बॉडी पेन अभी भी हो रहा था। अगले तीन दिन तक मैंने बिन नागा दवाई है। चौथे दिन मैंने एतियातन दवा ले ली। तकरीबन एक वीक में मैं सही हो गया।
लेकिन एक बात हमेशा मुझे ये एहसास कराती रही की तुमने ट्रवेल किया है। मुंबई से लुधियाना। इसलिए तुमको एक अपना शक दूर कर लेना चाहिए।
अब शक कैसे दूर होगा। उसका तो क ही रास्ता है। वो है टेस्ट करवा के देखना। लेकिन उसके लिए कम से कम लक्षण को दिखने चाहिए। ऐसा भी कुछ नहीं था।
दूसरा हर रोज़ लोकल सिविल हॉस्पिटल की खबर सुनकर और डर लग रहा था। कुछ समझ ही नहीं आ रहा था की क्या करू?
कंटिन्यू...........
अशोक कुमार
आगे पढ़े: - विनाश काल विपरीत मति।
Read More: - Short Love stories...............Click Here
मैं नवी मुंबई में था, जब ये शुरू हुआ। आदतन जैसे हम भारतीय लोग रियेक्ट करते हैं, वैसे ही मैं भी रियेक्ट कर रहा था। मेरे सभी दोस्त भी इस को मज़ाक में ले रहे थे। हम सभी तो यही सोच रहे थे की ये एक चायनीस बिमारी है और चाइना की चीज़ चलती ही कितना है, थोड़े ही दिन में खत्म हो जाएगी।
येही कोई जनवरी का महीने था और साल दो हज़ार बीस अभी लगा ही था की कोरोना नामक संक्रमण फ़ैल रहा है ऐसी खबरें सोशल मीडिया पर जोर पकड़ रही थी।
मैं एक एडवरटाइजिंग कंपनी के लिए, लोगों से मिलने-जुलने का काम करता था। अभी सीख ही रहा था। कुछ क्लाइंट्स को मिलना शुरू किया था और कुछ पर बात आगे बढ़ रही थी। यही कोई रोज़ाना चार घंटे का काम होता था वो भी वीक में कुछ मीटिंग्स शनिवार को भी होती थी।
इसके साथ में फ्रीलांसर राइटर के रूप में भी कुछ काम कर लिया करता था। इस तरह से समय निकल जाता था। जनवरी निकल गया और कुछ डीलस पर क्रिएटिव हेड की मीटिंग करवा दी। क्लाइंट पार्टीस का काफी अच्छा रिस्पांस था। इस दौरान मैं खुश भी था। क्योकि मेरा समय अच्छा निकल रहा था और कुछ नए और अच्छे लोगों से मिलना हो रहा था। मुझे जो करना था मैं वो कर रहा था इससे अच्छी बात और क्या हो सकती थी।
फरवरी में कोरोना-19 के नाम से उस चायनीस बीमार का नाम सबको पता चल गया। मैं जहाँ कहीं भी जाता था कुछ लोग इसके बारे में बातें करते थे। क्योकि चीन में हज़ारों लोग रोज़ाना मरने लगे थे। वहां के लोगों में डर का माहौल था। कुछ दिनों के बाद पता चला की चीन की गवर्मेंट ने वूहान, जहाँ से ये बीमारी का संक्रमण शुरू हुआ था उसको पूरी तरह से बंद कर दिया। सभी नागरिको को जबरन घरों में बंद कर दिया गया।
कुछ वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होते थे। मैं और मेरे दोस्त उन वीडियोस को देखते थे। हमको जब ये पता चल की ये बीमारी किसी चमगादड़ के सूप के पिने के बाद फैली है तो मुझे और मेरे दोस्तों को चायनीस लोगों पर बहुत गुस्सा आया। ये सोच कर की ये उनकी ही गलती है जिसका हर्जाना वो भुगत रहे हैं। अच्छा हुआ।
थोड़े ही दिनों में ये खबरें चलने लगी की अब ये संक्रमण चीन से निकल के दुनिया के दूसरे देशों में फैलने लगा है। शुरुवात के खबरों से ऐसा लग रहा था की दुनिया के दूसरे मुल्क इस बीमारी को हलके में ले रहे थे। लेकिन इंडिया में गवर्मेंट ने बहुत सख्ती से कदम उठाने शुरू कर दिए थे।
जैसे की विदेशो से आने वालों लोगों की जांच।
दूसरे देशो से अपने मुल्क के लोगों को निकल कर लेके आना। सुरक्षित एवं निशुल्क पूर्ण जिम्मेदारी के साथ। सभी की जांच करना और उनको रहने खाने की चीज़े मुहैया करवाना।
एयरपोर्ट अथॉरिटी विदेशों से आने वाले लोगों की स्क्रीनिंग कर रही थी। इस स्क्रीनिंग में जिसका टेम्प्रेचर ज़्यादा होता है उसको वहां पर मौजूदा स्टाफ 14 दिन तक घर में रहने की सलाह देता है।
30 जनवरी को इंडिया के केरला में पहला केस आया जो वूहान से लौटा था। एक स्टूडेंट जो वूहान में स्टडी कर रहा था।
वूहान से इंडिया के सैकड़ों स्टूडेंट निकाले गए। इसके बाद ये बीमारी ने अपना उग्र रूप धारण कर लिया। फरवरी के अंत तक ये लगभग पूरी दुनिया में फ़ैल चुकी थी। पर मामले बहुत काम थे। दुनिया को एहसास हो चूका था। क्योकि जो लोग इस बीमारी से संकर्मित थे ,उनकी दसा जानवरों की तरह हो रही थी। मरने वाले का शव भी परिजनों को नहीं मिलता था। सामूहिक शव दहन का काम चीन में शुरू था। भारत में पहला केस फ़रवरी में केरला में आ चूका था। जिसका इलाज़ा चल रहा था।
इंडिया में फरवरी के अंत तक लोग मस्ती से काम पर जा रहे थे। मुंबई का माहौल भी बिलकुल नार्मल था। किसी चीज़ की कोई पाबन्दी नहीं थी। दूसरी तरफ लोगों में डर का माहौल भी था, क्योकि इस वायरस का कोई इलाज नहीं था और मौत निश्चित थी।
मार्च महीने इंडिया में केस की गिनती बढ़नी शुरू हो चुकी थी। मार्च महीने में ये गिनती बढ़ने लगी। सराकरें विदेशो से आने वाले लोगों पर पाबन्दी लगाने लगी। शुरुवात में लोगों को टेस्ट रिपोर्ट के आधार पर आने दिया जाता था। बाद में किसी भी विदेशी या भारतीय नागरिक का भारत में आना फुल्ली क्लोज्ड कर दिया गया। ये फैसला मुझे अच्छा लगा। इस से इंडिया में कोरोना को रोकने में काफी हद तक मदद मिलेगी।
10 मार्च तक महाराष्ट्रा में टोटल केस 11 हो गए। अब लोगो में एक ख़ास तरह का डर था। मैंने 13 मार्च को ट्रवेल किया नवी मुंबई से अँधेरी। मैंने लोकल ट्रेंस में पहले के मुकाबले 30 परसेंट भीड़ कम महसूस की। मैंने लोगों की आँखों में एक अलग सा डर देखा। जब कोई छींकता या खांसता था। लोकल ट्रेंस में बार-बार लोगों को गाइड किया जा रहा था। "छींकते-खांसते हुए रुमाल का प्रयोग करे। जितना हो सके उतना छूने से बाचे।"
मैं लगभग एक घंटा पैतालीस में अँधेरी पहुंच गया। मैं मिस्टर सिन्हा को कॉल लगाया। मैं उनको बताया की मैं अँधेरी पहुंच चूका हूँ। क्योकि हमारी मीटिंग पहले से फिक्स थी तो मैं घर से निकलें से पहले उनको कॉल नही किया था। मिस्टर सिन्हा में मुझे कॉल पर बताया की वो एक मीटिंग में है वो दो घंटे तक मिल सकतें हैं। मैंने उसको ओके बोला।
इसी बीच मैंने राज को फ़ोन कर लिया। उसने मुझे पांच बजे तक मिलने को बोला। फिर मैंने सोचा की अगर मैं उसको मिलने गया तो जल्दी से वापिस आना पड़ेगा इनको मिलने के लिए। फिर मैंने सोचा की पहले सिन्हा साहब को मिल लेता हूँ और राज को कॉल कर दिया है तोह उसको भी मिलना पड़ेगा।
सबसे पहले में एक रेस्टॉरेंट में गया। मैंने वहां पर हैंड वाश किया। क्योकि मेरे दिमाग में कोरोना ही घूम रहा था। उसके बाद मैं बगल वाले मैक्डोनल्स में गया। एक कॉम्बो पैक लिया। आराम से खाया। फिर भी कॉम्बो पैक साला दस मिनट में खतम हो गया। पन्द्र मिनट और बैठा फिर मैं बहार निकल आया। घूमता रहा इधर-उधर लोगों को देखता रहा।
मैं बिलकुल भी परेशान नहीं हुआ। मैं बस लोगों को एन्जॉय कर रहा था। मैं कभी बस स्टैंड पर बैठता तो कभी रेलवे स्टेशन पर। आखिर दो घंटा बीत गया।
मिस्टर सिन्हा आये उन्होंने मुझे तीन कॉल किया। लास्ट वाले कॉल पर मैंने अपने पॉकेट से मोबाइल निकला ताकि मैं टाइम से सकू में देखा की तीन मिस्ड कॉल और दो मैसेज। मैंने तुरंत बैक कॉल किया।
आखिर हम दस मिनट के लिए मिले अमूनन जैसे मिस्टर सिन्हा करते हैं उन्होने वैसा ही किया। उन्होंने सब कुछ बताया और देरी के लिए सॉरी भी मांगी। मैंने इटस ओके! कह दिया। उन्होने मुझे एक बहुत बड़े प्रोजेक्ट के बारे में बताया। ये सुन कर मुझे समझ नहीं आ रहा था की मैं क्या रियेक्ट करूँ। "एंड बता तुझे क्या पोजीशन लेना है?" ये लास्ट में बोले।
मैंने उसको समाइल के साथ बधाई दे दी और साथ में कहां की, "ये मेरे लिए किसी सपने से काम नहीं है।" मेरे पास कोई शब्द नहीं है की मैं क्या कहूं। उनको एक कॉल आया। उन्होने वो कॉल लिया और रात को पुणे में पहुंच कर काम करने को बोला। उस प्रोजेक्ट के बारे में बताया ये भी बहुत बड़े लेवल का प्रोजेक्ट था। पुरे महाराष्ट्र लेवल का और छे महीने में कम्पलीट करना था। कुल मिला कर हमारे पास बहुत सारा काम था।
सब कुछ ठीक रहा तो दोनों प्रोजेक्ट अप्रैल में शुरू हो जाएंगे। हमने लास्ट में कुछ दो मिनट की बात की और उनको देरी हो रही थी तो मैंने उनको ऑटो तक ड्राप कर दिया।
इस पन्द्रा मिनट की मीटिंग के बाद मैं बहुत खुश था। इसके बाद मैं राज से मिलने गया। उसके साथ चाय पी कुछ बातें की और निकल गया। वो भी कोरोना की बातें कर रहा था। उसकी बहुत साड़ी मीटिंग पेंडिंग हो गयी थी। वो हमेशा की तरह परेशान ही था।
मैंने छे चालीस की लोकल अँधेरी से पनवेल पकड़ी। थोड़ी देर में वाशी। उसके बाद बीस मिनट में घर पर पहुंच गया। खुश था। पर मुझे भी टेंशन होना लगा। क्योकि कोरोना के केस बढ़ रहें थे। अब तक इंडिया में 30 मरीज़ आ चुके थे।
मैंने अपने सभी दोस्तों में पहले से ज़्यादा डर देखा। एक क्योकि वो डेली लोकल से ट्रवेल करते थे। एक ने तो डेली एक पेग ड्रिंक करना शुरू कर दिया। अगले एक हफ्ते में मरीज़ों की संख्या डबल हो गयी। सरकार ने कड़े प्रतिबंद लगाने शुरू कर दिया। मुझे भी सीधा यमराज नज़र आ रहे थे। उसके बाद मैं कभी लोकल में ट्रवेल नहीं किया। मैं घर में ही बैठा रहता था। शाम को सभी लोग आकर कोरोना की ही बातें किया करते थे। मुझे भी डर लगने लग गया था। एक रात को मैंने देखा की कुछ ने तो गर्म पानी भी किया और उसने हल्दी डाली हुयी थी। हमने एक दूसरे का मज़ाक बनाया।
एयरपोर्ट्स पर सबको लॉक कर दिया गया था। हर एक आदमी बिना स्क्रीनिंग के नहीं जा सकता। मुझे इस समय ज़्यादा खतरा प्लेन में ही नज़र आ रहा था। क्योकि एयरपोर्ट्स पर ज़्यादा विदेशी लोगों का आना जाना लगा रहता है। आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकतें ही आपके आस पास कौन खड़ा है। कौन आपको कोरोना दे जायेगा ये भी ता नहीं चलेगा।
उधर में फेसबुक पर पोस्ट पढ़ा की सभी गार्डन, मॉल, पुब्लिच प्लेस महाराष्ट्र में बंद हो गए हैं। सभी प्रोडक्शन हाउस ने सरकार के साथ ही सब कुछ स्थगित कर दिया तीस मार्च तक। इस बीच मैंने सत्रह तारीख राहुल को कहा की, 'भाई कल की तत्काल बुक कर लुधियाना।' वो हैरान था की अशोक भाई और लुधियाना, अभी दो दिन पहले ही तो कह रहे थे की कभी नहीं जाऊंगा। मैंने उसको कहा की, दो दिन पहले और आज में बहुत फर्क है। बुक कर! बुक कर! जब सब कुछ शुरू होगा तब देखा जायेगा।
भागो! भागो! भागो!
पांच शर्ट, तीन पेंट, लैपटॉप, रविंदर सिंह की लव स्टोरीज की किताब। कुछ बिस्कुट्स, चिप्स के साथ बैग पैक। क्योकि सुबह छे बजे से पहले लोकल पकड़ कर बांद्रा जाना था।
मुझे रात को नींद नहीं आ रही थी ये सोच कर की ट्रैन में अगर किसी ने कोरोना दे दिया तो क्या होगा। वैसे मैं रात को दो बजे के बाद सोता था पर आज मैंने ग्यारह बजे सोना शुरू कर दिया और फाइनली दो बजे तक सो गया। पांच बजे उठा और देव स्नान किया। चूँकि सिद्देश ने बोला था की कल अशोक भाई देव स्नान करेंगे। सूरज निकलने से पहले। ऐसा ही हुआ।
राहुल मुझे स्टेशन तक छोड़ने साथ आया। क्योकि जब भी कोई जाता था तो मैं उनको छोड़ने जाता था। मैंने कभी किसी और तकलीफ नहीं दी। अक्सर जब मैं जाता था तो अकेले ही जाता था।
मैं दो साल से मुंबई में था पर मैंने अपनी ईगो में कभी मैं एम् इंडिकेटर नहीं डाउनलोड किया था। क्योकि मुझे मज़ा आता था लोगों को तंग करके ट्रेंस की इन्क्वायरी करना। राहुल ने कहा की टिकट विंडो बंद होगी। तो आप इंडिकेटर से डाउनलोड करलो।
मैं कोई एक एप डिलीट किया और एम-इंडिकेटर डाउनलोड किया। स्टेशन सात मिनट वाकिंग पर था। डाउनलोड करके। डिटेल्स भर कर जल्दी से चलते-चलते मैंने बांद्रा की लोकल टिकट निकली।
मैंने लोकल पकड़ी और बांद्रा पहुँचा। कुछ खाने के मैं पहले स्टेशन से बहार गया। इतनी सुबह कुछ नहीं मिला। कुछ था वो अच्छा नहीं था। "लेटस मूव फॉरवर्ड"।
बांद्रा से निकल के बांद्रा टर्मिनस की तरफ। ऑटो लिया। ऑटो में तीन लोग पहले से बैठे से मैं सामान रखा और हम निकल पड़े। तीन मिनट में बांद्रा टर्मिनस पहुंच गए। ऑटो वाले के पास पांच रूपये छुट्टे नहीं थे। मैं भी ढीठ था। क्योकि आधा किलोमीटर का वो पन्द्र रूपये ले रहा था। एक और लड़का पांच रूपये लेने को खड़ा था। पांच मिनट तक ऑटो वाला इधर-उधर भटका पर उसको कहीं चेंज नहीं मिला। फाइनली मैंने दस रूपये वापिस मांग लिए। वो भी चालक निकला बोला, 'भाई इसको पांच वापिस दे देना।'
मेरे मन में @####द, चल रहा था। मैं पांच रूपये का बोझ लिए आगे बढ़ा। वो बाँदा भी मेरे जैसे ढीठ था। उसकी उम्र भी कोई पचीस के आस पास रही होगी। दस कदम आगे बढ़े तो मुझे एक चाय की टापरी दिखी जो बांद्रा मैं एंट्री गेट के जस्ट बाजू में थी। मैंने उसको बोला की चल चाय पीते हैं। वो एग्री हो गया। उसने मुझे सिगरेट ऑफर की। मेरे मन में चल ही रहा था की 'लेले', पर उसको झटपट कहा की, 'मैंने छोड़ दी है।' वो बोला क्यों? बस ऐसे ही।
इतने में दो कटिंग आ गयी। मैंने एक कप उसको दिया, एक मैं पीने लगा। उसने पूछा की, जाना कहाँ हैं? मैंने झटपट कहा की, "दिल्ली।"
उसने तुरंत बोला, की दिल्ली में कहाँ? अब मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैंने उसको पूछ लिया, आपको कहाँ जाना है? वो बोला दिल्ली।
मैं: ओह अच्छा!
वो: दिल्ली में कहाँ?
मैं: एक्चुअली दिल्ली में मेरे दोस्त रहतें हैं।
वो: कहाँ?
मैं: पता नहीं।
वो: शांत। (उसको लगा की मैं झूठ बोल रहा हूँ, या में बताना नहीं चाहता हूँ)
(जैसा की अमूनन सफर में पहले मैं झूठ ही बोलता हूँ, बाद में जरुरत पड़े तो सच बोल देता हूँ।)
मैं: वैसे मुझे अम्बाला जाना है। वो बोला ओह अच्छा।
वो: अच्छा।
(अच्छा हुआ उसने ये नहीं पूछा की अम्बाला में कहाँ?)
इतने में मेरी चाय ख़त्म हो गयी। मैंने पैसे दिए। उसने मुझे बताया की, वो कल ही किसी काम से मुंबई आया था। पर मुंबई में आधी सर्विसेज लॉक डाउन है। जिसकी वजह से उसको वापिस दिल्ली जाना पड़ रहा है।
वो बोला की, 'ठीक है भाई टिकट लेता हूँ।' मैंने भी उसको इग्नोर किया। क्योकि मैं नहीं चाहता था की मुझे दिल्ली तक किसी से बेवजह बात करनी पड़े और अपनी आधी सीट भी शेयर करनी पड़े।
मैं स्टेशन में एंटर हुआ। सामान स्कैन किया। इंडिकेटर पर ट्रैन चेक कर रहा था। ट्रैन प्लेटफार्म नंबर 2 पर खाड़ी थी। इतने में पीछे से फिर वो आ गया। वो बोला की, 'पता नहीं सीट मिलेगी की नहीं?'
मैं: अरे सीट मिल जाएगी। टेंशन मत लो। अज कल गाडी खाली जा रही है। नहीं मिली तो एस नाइन में आ जान। मैं उधर ही हूँ। फोर्मल्टी पूरी करदी। बोझ उतर गया।
मैंने टीसी से पूछा की, एस नाइन किधर है?
टीसी: यही तो है, सामने वाले कोच को इशारा करते हुए बोला।
मैं: थैंक्स।
एंट्री गेट पर एक लड़की खाड़ी थी।
मैं: एक्सक्यूस मी। ये सुनते ही वो पलटी और मेरा लैपटॉप बाग़ गिर गया। लैपटॉप बैग गिरते ही मुझे गुस्सा आया।
सामने से वो मुझे सॉरी बोल रही थी। मैंने बहुत ही शांति से बैग उठाया। और उसको, "इट्स ओके" कह दिया। मैं ये सोच रहा था की उसने सॉरी क्यों बोला?
उसको देखते हुए मैं ट्रैन में चढ़ गया। दस कदम अंदर गया तो मुझे मेरी बर्थ दिखी। सीट नंबर 24, विंडो सीट। वैसे मैंने कभी विंडो सीट के लिए ज़िद नहीं की। पर मुझे अक्सर विंडो सीट मिल जाती है। सामान रखा और अगल-बगल का माहौल चेक किया। कुछ ख़ास नहीं था। 80 % बर्थ खाली पड़ी थी।
सामान रखने के बाद मैं बहार गया। मैंने एक बोतल रेल नीर लिया। दो चिप्स के पैकेट। दो बिस्कुट ले लिए। कुछ मुस्लिम ग्रुप के लोग मेरे पीछे वाले कोच में चढ़ रहे थे। उन्होने नार्मल ड्रेस नहीं पहना था। शेरवानी कुरता और पेजमा पहना था। अजीब था?
तकरीबन तीस मिनट बाद ट्रैन ने हॉर्न किया। सुबह के आठ बज रहे थे मैं ट्रैन में ही था। ट्रैन में अभी तक कुछ भी इंटरेस्टिंग नहीं था। मैंने ये सोच लिया था की मैं अपने टाइम पर नास्ता करूँगा। मैं आराम से बैठ गया।
पहला स्टेशन निकला। बोरीवली। दूसरा निकला, वापी। तीसरा निकल। फिर चौथा। चाय के साथ एक पैकेट बिस्किट। आराम से दो स्टोरी पढ़ी की सूरत आ गया। मैं घण्टों खिड़की से बहार देखता रहता। बिना किसी से बात किये। मैं बोलना ही नहीं चाहता था। मुझे बस अकेले में सोच - सोच कर मज़ा आ रहा था। इतनमे एक पैसठ साल का आदमी आया।
आदमी: मुझे दो स्टेशन आगे जाना है। मैं बैठ जाऊ?
मेरे सामने वाली सीट खाली थी। मैंने उनको कह दिया, बैठ जाओ। (ये कौनसा मेरे बाप की है, मन में)
वो बैठते की कोरोना की बात करने लगे। मैंने सिर्फ बात को आगे बढ़ने के लिए उनकी बातों को फिर, और, अच्छा। ठीक है। ओहो। का सहारा दिया। वो बोलते गए। ट्रैन गोधरा पहुंच गयी।
ट्रैन चलने ही वाली थी। अचानक से ट्रैन रुक गयी। दो कोच में लोग पागल हो रहे थे। कुछ समझ नहीं आ रहा था। अफरातफरी का माहौल था। "जो होगा वो तो होक ही रहेगा।" ये मेरी फिलोसॉफी थी। ये सोच कर मैं आराम से अपनी जगह पर बैठा था।
लेकिन जैसे ही मुझे पता चला की पिछले डिब्बे में छे लोग ऐसे बैठे थे जिनके हाथ पर "होम क्वारंटीन" का स्टाम्प लगा हुआ था। मेरी फिलॉसफी को दर्द महसूस होना शुरू हो गया। तकरीबन आधे घंटे बाद पता चला की, उन छे लोगों की इन्क्वारी हो गयी है। वो लोग दुबई से आये थे। एयरपोर्ट अथॉरिटी ने उनको ट्रवेल करने की इज़्ज़ज़त दी है। पर एक बार तो मेरे सामने बैठे पैसठ साल के बुड्ढे की साँसे रुक गयी थी जो मुझे इतने देर से ज्ञान दे रहा था। कोरोना पर।
इसके बाद मैंने सीधा अपर बर्थ का रुख किया। की अब यहाँ बैठना खतरे से खाली नहीं है। अब मेरी नज़र हर आने जाने वाले आदमी पर थी। कैटरिंग वाले से लेकर पानी वाले तक। मैंने सब कुछ नोटिस करना शुरू कर दिया। मैं अपर बर्थ पर था तो सब कुछ यहाँ से क्लियर नज़र आ रहा था।
कुछ ख़ास बातें जो मैंने नोटिस की वो इस तरह से हैं।
नंगे हाथ फल बेचने वाला वेंडर। चाय वाला। पानी वाला।
नंगे हाथ से दाल को मिलना, उसने प्याज लगाना, फिर उसी हाथ से निब्बु निचोड़ कर, चटपटा, करारा, नमकीन सिर्फ दस रूपये में दे देना।
उसी हाथ से पैसे लेना। जेब में डालना। फिर उन्ही हाथों से जगह - जगह पकड़ कर कोच में आगे बढ़ना। मैंने कुछ लोगों को टॉयलेट तक जाते देखा। अगले कोच में फिर से वही सिलसिला शुरू। हर वेंडर ऐसे ही कर रहा था।
मेरे दिमाग में यही आ रहा था की मैं कहाँ फस गया। अब बस जल्दी से घर पहुंच जाऊ। "जो होगा वो तो होक ही रहेगा।" ये मेरी फिलोसॉफी थी। अब मेरी पास बस फिलासफी का ही सहारा था।
मैंने प्राण कर लिया की ज़रूरत पढ़ने पर ही नीचे जाऊंगा। चार कप चाय और बिस्किट चिप्स खाकर जीवन की इस यात्रा को सफल बाउंगा। हार बार पेपर सॉप से हाथ वाश करूँगा।
पूरा दिन देखते ही देखते ख़त्म हो गया। रात हो गयी। लोग आराम से खा पी रहे थे। मैंने आज व्रत रख लिया था। एक दिन व्रत रखने से की मरता नहीं है। सर पानी बिस्कट और जरुरत पड़े तो चाय। खैर रात हो गयी थी।
मुझे पता था की जैसे ही रात होगी समझो मैंने आधा सफर पूरा कर लिया क्योकि सुबह चार बाजे मैं दिल्ली पहुंच जाऊंगा। और दस बजे तक लुधियाना। मतलब मुझे सुबह। नौ बजी तक उठान है। ताकि मैंने उस हिसाब से घर पहुंच सकूँ।
ठीक वैसे ही हुआ, रात को ठण्ड लग रही थी पर मैं, किसी तरह से एक शॉल में मैनेज कर रहा था। कभी आगे से ठण्ड लगती थी तो कभी पीछे से। खैर रात निकल गयी और सुबह के आठ बज गए थे। मैंने सोच किसी तरह नौ बजे तक सोना है।
खैर दस बजे, मैं पुरे वक़्त पर लुधियाना पहुंच गया। मेरी घर पर किसी को पता नहीं था की मैं आ रहा हूँ। तो मैंने अपने घर पर किसी को खबर नहीं की। मैंने सीधा घर पार पहुंचना चाहता था। मैंने ओला ली और निकल पड़ा।
20 मिनट में घर। घर वाले थोड़ा सरप्राइज थे, एक साल बाद मुँह दिखया जो था। मैंने सभी प्रोटोकॉल फॉलो किया। बिना कुछ छुए हुए। घर के अंदर गया। कपड़े खुद ही धो कर डाले। बैग को दो दिन तक धुप में रख दिया।
ख़ुशी तो थी घर आकर
पर गम भी उतना ही था।
कहीं मेरी वजह से किसी
दूसरी की बैंड न बज जाए
इसका डर सता रहा था
थोड़ा ही सही
पर साल बाद घर आकर
मज़ा आ रहा था।
तीसरे दिन मतलब रात को तीन बजे मुझे बहुत तेज़ बुखार, दस्त, उलटी शुरू हो गयी। समझ नहीं आ रहा था की हुआ क्या? अब तो सीधा यमराज नज़र आ रहे थे। शरीर में जान नहीं बची थी। ऐसा लग था की बाथरूम में ही बिस्तर लगा लू।
डॉक्टर के पास जाने पता चला की मुझे फ़ूड पोइशनिंग हो गया है। कुछ दिन मुझे दवा खानी पड़ेगी। उसने मुझे दो इंजेक्शन दिए। जिसकी वजह इ मुझे अगले दो घंटे में कुछ रहत महसूस हुई।
फीवर तो उतर गया पर बॉडी पेन अभी भी हो रहा था। अगले तीन दिन तक मैंने बिन नागा दवाई है। चौथे दिन मैंने एतियातन दवा ले ली। तकरीबन एक वीक में मैं सही हो गया।
लेकिन एक बात हमेशा मुझे ये एहसास कराती रही की तुमने ट्रवेल किया है। मुंबई से लुधियाना। इसलिए तुमको एक अपना शक दूर कर लेना चाहिए।
अब शक कैसे दूर होगा। उसका तो क ही रास्ता है। वो है टेस्ट करवा के देखना। लेकिन उसके लिए कम से कम लक्षण को दिखने चाहिए। ऐसा भी कुछ नहीं था।
दूसरा हर रोज़ लोकल सिविल हॉस्पिटल की खबर सुनकर और डर लग रहा था। कुछ समझ ही नहीं आ रहा था की क्या करू?
कंटिन्यू...........
अशोक कुमार
आगे पढ़े: - विनाश काल विपरीत मति।
Read More: - Short Love stories...............Click Here
कोई टिप्पणी नहीं